राजस्थान के जैसलमेर में हुए भयावह बस अग्निकांड में 20 लोगों की मौत हो चुकी है। पहचान के लिए जोधपुर और जैसलमेर के अस्पतालों में DNA सैंपलिंग शुरू की गई है। जोधपुर के महात्मा गांधी और जैसलमेर के जवाहिर हॉस्पिटल में परिजनों से सैंपल लिए जा रहे हैं। मंगलवार देर रात तक सेना की मदद से सभी शवों को बस से निकाला गया।
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घटनाजैसलमेर-जोधपुर हाईवे पर हुई थी। बस में शॉर्ट सर्किट, एसी कम्प्रेशर फटने और पटाखों से भरी डिग्गी की आशंका के बीच आग लगने के कारणों पर विरोधाभासी दावे हो रहे हैं। पीएम मोदी ने मृतकों के परिवारों को ₹2 लाख और घायलों को ₹50,000 की आर्थिक सहायता की घोषणा की है। मरने वालों में पत्रकार राजेंद्र चौहान और एक ही परिवार के 5 सदस्य भी शामिल हैं।
जब सफर राख में बदल गया
दोपहर साढ़े तीन बजे बस में आग लगी। चंद मिनटों में लपटों ने पूरी बस को घेर लिया।
कहते हैं कुछ यात्री दरवाजे तक पहुंचे, मगर रास्ता बंद था -बस में एक ही गेट था।
आगे बैठे कुछ लोग बाहर निकल पाए, पर पीछे वालों के पास मौका नहीं था।
जो निकले, वो ज़िंदा लपटों के बीच अपने प्रियजनों को जलते देख रहे थे।
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सेना को बुलाना पड़ा। रात तक आर्मी और फायर टीम ने शव निकाले।
कुछ शव बस की बॉडी से चिपक गए थे, कुछ सिर्फ हड्डियों में बदल चुके थे।
जोधपुर और जैसलमेर के अस्पतालों में अब पहचान का काम DNA से हो रहा है।
हर सैंपल के पीछे एक कहानी है — एक परिवार जो अब अधूरा रह गया।
पटाखे या शॉर्ट सर्किट? या सिस्टम की लापरवाही?
आग की वजह को लेकर कई दावे हैं — किसी ने कहा शॉर्ट सर्किट, किसी ने कहा एसी कम्प्रेशर फटा।
स्थानीय लोग बोले, बस की डिग्गी पटाखों से भरी थी।
अगर ये सच है, तो सवाल बड़ा है — यात्रियों की बस में पटाखे कैसे?
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कहां था चेकिंग सिस्टम?
राजस्थान की सड़कों पर निजी बसें अक्सर बिना फिटनेस, बिना अग्निशमन यंत्रों के चलती हैं।
पर हर हादसे के बाद वही बयान: “जांच के आदेश दे दिए गए हैं।
फिर अगली बस, अगली मौत और वही सिस्टम की चुप्पी।
सरकार की घोषणा और जमीर की खामोशी
प्रधानमंत्री राहत कोष से मृतकों के परिवारों को ₹2 लाख और घायलों को ₹50,000 की सहायता की घोषणा हुई है।
यह मदद जरूरी है, लेकिन सवाल भी ज़रूरी है — क्या इन पैसों से एक पूरी ज़िंदगी की कीमत चुकाई जा सकती है?
एक पत्रकार राजेंद्र चौहान, जो रोज़ हादसों की खबरें लिखते थे, आज खुद एक हेडलाइन बन गए।
एक परिवार के पाँच सदस्य, जो साथ में सफर पर निकले थे, अब एक ही चिता में समा गए।
यह सिर्फ एक हादसा नहीं, यह व्यवस्था की नाकामी का जलता हुआ प्रतीक है।
जरूरत है सिस्टम में आग से पहले ‘संवेदना’ की
हर बस में आग बुझाने का सिलेंडर होना चाहिए, लेकिन कितनों में है?
हर ड्राइवर को अग्नि सुरक्षा का प्रशिक्षण मिलना चाहिए, पर क्या मिलता है?
हम हर बार हादसे के बाद आंकड़े गिनते हैं, पर नियमों की आग बुझाने की कोशिश नहीं करते।
DNA सैंपलिंग से शायद पहचान हो जाए, पर उस भरोसे की पहचान कौन लौटाएगा जो व्यवस्था से लोगों को चाहिए?
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रेगिस्तान की रेत पर अब सिर्फ राख नहीं, सवाल भी उड़ रहे हैं ;
कब तक हमारी बसें चलती रहेंगी मौत की दिशा में?
कब तक हादसों के बाद DNA रिपोर्टों में जिंदगी की पहचान ढूंढी जाएगी?
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