दिवाली जैसे पर्व पर जब घर-घर मिठास और रौनक फैलनी चाहिए, तब मिलावटखोरी का ज़हर एक बार फिर खाद्य सुरक्षा व्यवस्था की सच्चाई उजागर कर रहा है। गोरखपुर में हालिया छापेमार कार्रवाई और बिना लाइसेंस मिठाई व पनीर बेचने वालों पर हुई सख्ती केवल एक शहर की कहानी नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश की दशा का आइना है।
त्योहारी सीजन में उत्तर प्रदेश के लगभग हर जिले में खाद्य विभाग की टीमें “ताबड़तोड़ छापेमारी” में लगी हैं — यह देखकर अच्छा लगता है कि अधिकारी सक्रिय हैं। लेकिन हर साल यही तस्वीर दोहराई जाती है — कुछ नमूने, कुछ चालान, कुछ चेतावनियाँ, और फिर वही ढर्रा। सवाल यह है कि आखिर ये अभियान सिर्फ त्योहारों तक सीमित क्यों रहते हैं? क्या जनता का स्वास्थ्य केवल अक्टूबर-नवंबर तक ही विभाग की प्राथमिकता होता है?
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गोरखपुर में सहायक आयुक्त (खाद्य) डॉ. सुधीर कुमार सिंह ने स्पष्ट कहा कि बिना लाइसेंस या आईकार्ड पनीर बेचने वालों पर कार्रवाई होगी। यह सराहनीय कदम है, पर इससे बड़ा सवाल यह है कि ये पनीर विक्रेता, खोवा बनाने वाले, और मिठाई बेचने वाले अब तक बिना पंजीकरण के सालों से कैसे काम कर रहे थे? क्या प्रशासन को त्योहार आने के बाद ही याद आता है कि खाद्य सुरक्षा कानून भी कोई चीज़ है?
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झुंगिया बाजार में बंद हुई दुकानें और 40 किलो खराब खोवा नष्ट कराया जाना एक छोटी झलक है उस व्यापक लापरवाही की, जो रोज़मर्रा के स्तर पर जनता की थाली तक पहुँचती है। “अखाद्य बर्फ” और “डिब्बाबंद पनीर” का मिश्रण सिर्फ गुणवत्ता की कमी नहीं, बल्कि उपभोक्ता के साथ खुली धोखाधड़ी है। जब मिठास में मिलावट की बू आने लगती है, तो त्योहारों का भावनात्मक मूल्य भी खो जाता है।
जरूरत सिर्फ छापेमारी की नहीं, बल्कि सतत निगरानी और स्थानीय पंजीकरण व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की है।
हर शहर, हर बाजार में खाद्य वस्तुएं बेचने वालों का ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन और रियल-टाइम निरीक्षण प्रणाली होनी चाहिए, ताकि “चेतावनी” का सिलसिला खत्म होकर “जवाबदेही” शुरू हो सके।
क्योंकि जब तक मिलावटखोरी के खिलाफ कार्रवाई स्थायी नीति नहीं बनती, तब तक त्योहारों की मिठास हर साल इसी तरह संदेह में घुलती रहेगी।
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