लखनऊ, एनआईए संवाददाता।
दीपावली खुशियों का पर्व है — घर सजते हैं, दीप जलते हैं, और मिठाइयों की मिठास रिश्तों में घुलती है। लेकिन इस मिठास में जब मिलावट का जहर घुल जाता है, तो त्योहार का अर्थ बदल जाता है। लखनऊ में खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन की टीम द्वारा की गई रविवार की छापेमारी एक सच्चाई उजागर करती है — त्योहारों से पहले मिलावटखोर भी अपनी “त्यारी” पूरी कर चुके थे।
राजधानी में हुई इस व्यापक कार्रवाई में 14 प्रतिष्ठानों से नमूने लिए गए और 321 किलो खाद्य सामग्री सीज की गई, जिनकी कीमत लगभग ₹73,880 बताई गई। खोया, घी, पनीर, तेल, नमकीन और रंगीन मिठाइयाँ — यानी वही चीज़ें, जो दीपावली की थाली का हिस्सा होती हैं, सबसे ज्यादा निशाने पर थीं।
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यह तस्वीर केवल एक शहर की नहीं है, यह पूरे सिस्टम की कहानी है — जहां खाद्य सुरक्षा की जिम्मेदारी सिर्फ त्योहारों तक सीमित हो जाती है। हर साल की तरह इस बार भी विभाग ने “विशेष प्रवर्तन अभियान” चलाया, पर सवाल यह है कि क्या मिलावटखोर केवल अक्टूबर और नवंबर में ही सक्रिय होते हैं?
लखनऊ के विभिन्न इलाकों — जानकीपुरम, चिनहट, गोमती नगर, बीकेटी और काकोरी — में छापेमारी में जो खुलासे हुए, वे बताते हैं कि खाद्य सुरक्षा नियमों की अनदेखी अब सामान्य व्यापारिक प्रक्रिया बन चुकी है।
कहीं सरसों के तेल की शुद्धता संदिग्ध मिली,
कहीं खोया और घी में गुणवत्ता का अभाव,
तो कहीं मसालों और मिठाइयों में रंगों की मिलावट।
यह केवल “इम्प्रूवमेंट नोटिस” जारी करने का मामला नहीं, बल्कि जनस्वास्थ्य की सीधी चुनौती है। मिलावटखोरी अब आर्थिक अपराध नहीं रही, यह जनजीवन पर हमला है।
जरूरत है कि खाद्य सुरक्षा विभाग अपनी कार्रवाई को “त्योहारी मुहिम” से निकालकर वार्षिक और स्थायी निगरानी प्रणाली में बदले। हर प्रतिष्ठान के लाइसेंस, प्रयोगशाला रिपोर्ट और आपूर्ति श्रृंखला की डिजिटल ट्रैकिंग अनिवार्य होनी चाहिए।
क्योंकि अगर उपभोक्ता यह सोचकर मिठाई खरीदे कि वह शुद्ध है, और बदले में उसे रासायनिक ज़हर मिले, तो यह न सिर्फ सिस्टम की नाकामी है — यह आस्था के पर्व पर प्रशासन की निष्क्रियता की कटु सच्चाई है।
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