कांशीराम की 19वीं पुण्यतिथि पर लखनऊ के कांशीराम स्मारक स्थल से उठी बसपा सुप्रीमो मायावती की आवाज़ ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी है। यह आयोजन महज़ श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि एक सुविचारित राजनीतिक पुनर्प्रस्तुति (relaunch) था जिसमें मायावती ने न केवल अपनी पार्टी को चेताया, बल्कि विरोधियों को भी यह संदेश दिया कि बहुजन मिशन अब भी जीवित है।
भीड़ से भरोसा, भाषण से रणनीति
रैली में उमड़ी भीड़ ने यह साबित किया कि मायावती की जमीन पर पकड़ अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। हालाँकि बीते कुछ वर्षों में बसपा की राजनीतिक उपस्थिति कमजोर हुई है, 2022 विधानसभा चुनाव में पार्टी सिर्फ एक सीट तक सिमट गई थी और 2024 लोकसभा चुनाव में उसका वोट शेयर चार प्रतिशत से भी नीचे चला गया। लेकिन इस रैली में मायावती ने दिखाया कि भीड़ जुटाना और जनाधार को भावनात्मक रूप से सक्रिय करना, वह कला आज भी जानती हैं।
उनका तीन घंटे लंबा भाषण शालीन परंतु आक्रामक था। सपा और कांग्रेस पर करारे वार, भाजपा पर संयमित आलोचना और संविधान पर अटूट भरोसा। यही तीन परतें उनके राजनीतिक संदेश की असली धुरी रहीं।
दलित-मुस्लिम समीकरण की वापसी की कोशिश
रैली का एक अहम संकेत मायावती का यह बयान था। मुस्लिम समाज का विकास नहीं हो पा रहा, उनका जानमाल और मजहब भी सुरक्षित नहीं। यह संदेश स्पष्ट रूप से बताता है कि मायावती एक बार फिर 2007 जैसे दलित-मुस्लिम समीकरण को साधने की कोशिश कर रही हैं। सपा का यह परंपरागत वोट बैंक अब बसपा के लिए आकर्षण का केंद्र है। मायावती ने सामाजिक न्याय और सुरक्षा की बात कर दोनों समुदायों को साझा पीड़ा के सूत्र में बाँधने की कोशिश की।
संविधान, कांशीराम और मिशन की पुनर्प्रतिष्ठा
अपने भाषण में मायावती ने बार-बार बाबा साहेब और कांशीराम का नाम लेकर पार्टी को उसकी मूल जड़ों से जोड़ने का प्रयास किया।
उन्होंने कहा कि बसपा केवल सत्ता पाने की नहीं, बल्कि समाज बदलने की राजनीति करती है। यह बयान पार्टी कैडर के लिए मनोबल बढ़ाने वाला है, जो लगातार चुनावी पराजयों से हतोत्साहित रहा है।
भाजपा से टकराव नहीं, पर दूरी बरकरार
दिलचस्प यह रहा कि मायावती ने भाजपा सरकार की कुछ बातों की तारीफ भी की, रैली स्थल की मरम्मत और प्रशासनिक सहयोग के लिए योगी सरकार का आभार जताया। यह “सकारात्मक आलोचना” का संतुलित तरीका था, जिससे वह भाजपा से सीधे टकराव से बचते हुए खुद को स्वतंत्र विकल्प के रूप में पेश कर सकें। इस रणनीति का राजनीतिक अर्थ यह है कि बसपा आने वाले चुनावों में न तो किसी गठबंधन का हिस्सा बनना चाहती है और न ही किसी ध्रुवीकरण का हिस्सा, बल्कि वह खुद को “तीसरा विकल्प” के रूप में पुनर्स्थापित करने की राह पर है।
आकाश आनंद की मौजूदगी, पीढ़ी परिवर्तन का संकेत
रैली में मायावती के साथ उनके भतीजे आकाश आनंद की प्रमुख उपस्थिति इस बात का संकेत है कि पार्टी में अब नेतृत्व हस्तांतरण की तैयारी शुरू हो चुकी है।
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आकाश की भाषा और सोशल मीडिया शैली युवाओं को जोड़ने की दिशा में बसपा के लिए नई ऊर्जा ला सकती है,
परंतु यह तभी सफल होगी जब संगठन उन्हें स्वीकार करे और उन्हें मायावती जैसा करिश्माई प्रभाव मिल सके।
आगे की राह कठिन पर जरूरी
रैली ने बसपा के कार्यकर्ताओं में नई उम्मीद तो जगाई है, पर यह भी सच है कि “रैली की भीड़” और “मतदान की भीड़” में बहुत फर्क होता है। बसपा को अपने मंडल-स्तर के संगठन को पुनर्जीवित करना होगा, दलितों के साथ-साथ पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों में नई राजनीतिक भाषा गढ़नी होगी। मायावती की चुनौती यह नहीं है कि वह भीड़ जुटा सकती हैं या नहीं ,बल्कि यह है कि क्या वह उस भीड़ को वोट में बदल सकती हैं? 2027 का चुनाव इस सवाल का जवाब देगा।
पुरानी जमीन पर नई नींव
मायावती की यह महारैली बसपा के इतिहास का पुनर्लेखन करने की कोशिश है। यह आयोजन एक स्मृति और एक संकल्प – दोनों का संगम था। जहाँ मंच पर कांशीराम की तस्वीरें अतीत की याद दिला रही थीं, वहीं मायावती की आवाज़ भविष्य की दिशा तय कर रही थी।
बसपा अब उस मोड़ पर खड़ी है जहाँ उसे तय करना है, क्या वह “बहुजन आंदोलन” की आत्मा को पुनः जीवित करेगी, या केवल “चुनावी दल” बनकर रह जाएगी?
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