69,000 शिक्षक भर्ती विवाद: न्याय की देरी, युवाओं की बेबसी और सरकार की परीक्षा

लखनऊ, NIA संवाददाता। 

उत्तर प्रदेश में 69,000 सहायक शिक्षक भर्ती का विवाद अब केवल नियुक्तियों का नहीं रहा — यह युवाओं के धैर्य, न्याय प्रणाली की गति, और सरकार की संवेदनशीलता की परीक्षा बन चुका है।
पांच वर्षों से चल रहे इस संघर्ष ने प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल उठाए है, “जब न्याय तय हो चुका, तो नियुक्तियाँ क्यों नहीं हो पा रहीं?”

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न्याय बनाम देरी

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस भर्ती से जुड़े आरक्षण विवाद में अभ्यर्थियों के पक्ष में निर्णय दिया था। लेकिन मामला अब सुप्रीम कोर्ट में अटका है।
यह देरी केवल कानूनी प्रक्रिया का परिणाम नहीं, बल्कि सरकारी इच्छाशक्ति की कमी का प्रतीक भी मानी जा रही है।

सवाल यह है कि जब अभ्यर्थी वर्षों से अदालतों और धरनों के बीच भटक रहे हैं, तो क्या सरकार की ज़िम्मेदारी सिर्फ “सुनवाई की प्रतीक्षा” तक सीमित रहनी चाहिए?

न्याय की देरी, न्याय से इंकार के बराबर होती है। इस कहावत को यह मामला जीवंत रूप में दर्शा रहा है।

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आरक्षण और प्रतिनिधित्व का प्रश्न

इस भर्ती ने आरक्षण व्यवस्था की जटिलताओं को फिर उजागर किया है।
पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग के अभ्यर्थी यह सवाल उठा रहे हैं कि जब वे मेरिट और नियम दोनों में योग्य हैं, तो उन्हें क्यों वंचित रखा गया?

यह केवल सरकारी आंकड़ों का विवाद नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिनिधित्व की एक बड़ी बहस है।
शिक्षक समाज की रीढ़ होते हैं और यदि उनके चयन में ही समानता न दिखे, तो शिक्षा में समानता की बात अधूरी रह जाएगी।

राजनीति की भूमिका

अभ्यर्थियों का मायावती के आवास पर प्रदर्शन इस बात का प्रतीक है कि युवाओं ने अब नेताओं से सिर्फ वादे नहीं, बल्कि कार्यवाही की अपेक्षा की है। बीएसपी हो या बीजेपी-सभी पर अब जवाबदेही का दबाव है।

जहां बसपा से अभ्यर्थी “पैरवी” की उम्मीद कर रहे हैं, वहीं सरकार पर आरोप है कि वह “जानबूझकर मुकदमा लटका रही है।”
राजनीतिक चुप्पी युवाओं की निराशा को और गहरा कर रही है।

शिक्षा तंत्र पर असर

जब एक राज्य में 69,000 शिक्षकों की नियुक्ति पाँच साल तक लटकी रहे, तो इसका असर सिर्फ अभ्यर्थियों पर नहीं, बल्कि स्कूलों और बच्चों के भविष्य पर भी पड़ता है।
कई सरकारी स्कूल आज भी शिक्षकविहीन या अस्थायी नियुक्तियों पर चल रहे हैं।
इससे न केवल शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है, बल्कि ग्रामीण इलाकों में साक्षरता अभियान भी धीमा पड़ता है।

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रास्ता क्या है?

सरकार को स्पष्ट और ठोस पैरवी करनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में मजबूत कानूनी पक्ष रखना राज्य की संवैधानिक जिम्मेदारी है।

समयबद्ध समाधान की नीति बने।
शिक्षा व भर्ती मामलों के लिए “फास्ट ट्रैक कोर्ट” की व्यवस्था न्याय की गति बढ़ा सकती है।

अभ्यर्थियों के संवाद को राजनीतिक मंच न बनाया जाए।
उनकी समस्या को “राजनीतिक अवसर” नहीं, “प्रशासनिक दायित्व” के रूप में देखा जाए।

पारदर्शी आरक्षण ऑडिट हो।
भर्ती प्रक्रिया में किस वर्ग को कितनी सीटें मिलीं, इसकी सार्वजनिक रिपोर्ट पारदर्शिता बढ़ा सकती है।

समानता का अधिकार मांग रहे अभ्यर्थी

69,000 शिक्षक भर्ती विवाद ने यह सिखाया है कि सरकारें बदल सकती हैं, लेकिन न्याय की उम्मीद नहीं बदलनी चाहिए।
अभ्यर्थी आज सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि सम्मान और समानता का अधिकार मांग रहे हैं। यदि 28 अक्टूबर की सुप्रीम कोर्ट सुनवाई उन्हें राहत देती है, तो यह न केवल अभ्यर्थियों की जीत होगी, बल्कि शासन में भरोसे की बहाली भी होगी।
और अगर न्याय फिर टलता है तो शायद यह पीढ़ी सरकारों पर नहीं, अपने संघर्ष पर भरोसा करना सीख जाएगी।

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