UP में शिक्षामित्र मानदेय विवाद: कमेटी ने पल्ला झाड़ा, उम्मीदों पर फिर ब्रेक

लखनऊ, NIA संवाददाता।

उत्तर प्रदेश के शिक्षामित्र एक बार फिर इंतज़ार की राह पर हैं। सरकार द्वारा गठित चार सदस्यीय कमेटी ने साफ कहा है कि मानदेय बढ़ाने का निर्णय उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई भी कदम राज्य के वित्त पर बड़ा बोझ डालेगा।
यह तर्क तकनीकी रूप से सही हो सकता है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या वर्षों से सीमित मानदेय पर काम कर रहे इन शिक्षामित्रों की उम्मीदों को फिर टाल देना न्यायसंगत है?

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उम्मीद बनाम हकीकत

राज्य में करीब 1.43 लाख शिक्षामित्र हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने प्राथमिक शिक्षा की जड़ों को संभाले रखा है, कई बार कठिन परिस्थितियों में भी। सरकार ने अब तक उनका मानदेय छह बार बढ़ाया है — यह बात सही है।
लेकिन आज जब महंगाई दर लगातार बढ़ रही है और जीवन यापन का खर्च दुगना हो चुका है, तो मात्र ₹10,000–₹12,000 के मासिक मानदेय में किसी परिवार का गुज़ारा मुश्किल है।

वित्तीय तर्क या मानवीय दृष्टिकोण?

कमेटी का कहना है कि अगर केवल ₹1000 की भी वृद्धि की जाए, तो राज्य पर ₹157 करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा।
पर सवाल यह है — क्या 157 करोड़ का यह खर्च उस समाज के भविष्य में निवेश नहीं माना जाना चाहिए जो इन्हीं शिक्षामित्रों के हाथों आकार ले रहा है?

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निर्णय का बोझ अब मंत्री परिषद पर

कमेटी ने मामला मंत्री परिषद या किसी सक्षम उच्च स्तर पर भेज दिया है। यानी अब अंतिम निर्णय सरकार को लेना है।
यह सरकार के लिए एक परीक्षा भी है कि क्या वह वित्तीय अनुशासन को प्राथमिकता देगी या सामाजिक न्याय को।

शिक्षामित्रों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता

यह भी याद रखना होगा कि शिक्षामित्र केवल कर्मचारी नहीं, बल्कि शिक्षा व्यवस्था की जमीनी रीढ़ हैं। इनका मनोबल गिरना, बच्चों की शिक्षा पर भी असर डाल सकता है।
सरकार को चाहिए कि वह इनकी सेवा शर्तों और मानदेय दोनों पर एक स्थायी नीति बनाए, ताकि हर साल यह असमंजस न दोहराया जाए।

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