लखनऊ अब सिर्फ “नवाबों का शहर” नहीं रहा, यह बदलते समय में “नाइटलाइफ़” और “क्लब कल्चर” का भी नया केंद्र बन चुका है। लेकिन जैसे-जैसे शहर का रंग-ढंग आधुनिक होता जा रहा है, वैसा ही बढ़ रहा है अराजकता और गुंडागर्दी का कल्चर। चिनहट इलाके के अयोध्या रोड स्थित किला क्लब में बिल में डिस्काउंट को लेकर हुआ विवाद इसी असंवेदनशील प्रवृत्ति की मिसाल है — जहां मनोरंजन के नाम पर हिंसा ने इंसानियत का चेहरा तोड़ दिया।
व्यवसायी जय मखीजा पर क्लब कर्मचारियों और बाउंसरों द्वारा बीयर की बोतलों व प्लेटों से हमला करना केवल “विवाद” नहीं, बल्कि यह इस बात का प्रतीक है कि कानून और अनुशासन की सीमाएं इन प्रतिष्ठानों के भीतर खो गई हैं। सवाल उठता है — क्या यह सुरक्षा कर्मचारियों की भूमिका है? क्या “बाउंसर” शब्द अब “अराजक ताकत” का पर्याय बन गया है?
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क्लब संस्कृति का उद्देश्य मनोरंजन, सामाजिक मेलजोल और रोजगार सृजन है, न कि दबंगई और दहशत। परंतु लखनऊ समेत बड़े शहरों में कई बार देखने में आया है कि शराब परोसने वाले प्रतिष्ठान रात में कानून से ऊपर व्यवहार करने लगते हैं। पुलिस की मौजूदगी या प्रशासनिक निगरानी का अभाव इन घटनाओं को और बढ़ावा देता है।
पुलिस ने इस मामले में 1 नामजद और 15 अज्ञात पर मुकदमा दर्ज कर लिया है, लेकिन अनुभव बताता है कि ऐसे मामलों में जांच लंबी और सज़ा दुर्लभ होती है। यही ढील अपराधियों को और ताकत देती है। अगर क्लबों के लाइसेंस, सीसीटीवी फुटेज और सुरक्षा प्रोटोकॉल की नियमित जांच नहीं हुई, तो यह “मनोरंजन केंद्र” आने वाले दिनों में हिंसा के अड्डे बन जाएंगे।
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प्रशासन को यह समझना होगा कि शहर की नाइटलाइफ़ तभी सुरक्षित हो सकती है, जब मनोरंजन की आज़ादी और सुरक्षा का संतुलन कायम रखा जाए। अन्यथा, ऐसे हादसे केवल सिर फोड़ने तक सीमित नहीं रहेंगे — शहर की साख भी टूटेगी।