लखनऊ विश्वविद्यालय में एक बार फिर भ्रष्टाचार की गंध तेज़ हो गई है। शोध सम्मान राशि में फर्जीवाड़े और मानदेय घोटाले का आरोप उठाने वाले तीन शिक्षकों को अब खुद नोटिस थमा दिया गया है। बड़ा सवाल यह है—
क्या भ्रष्टाचार उजागर करने की कीमत चुकानी पड़ रही है?
शोध सम्मान राशि: किसके जेब में गया पैसा?
तीनों शिक्षकों का आरोप है कि—
शोध सम्मान समारोह में गलत तरीके से फंड का इस्तेमाल किया गया
पूर्व कुलपति प्रो. आलोक राय और कुछ अधिकारियों ने मानदेय के नाम पर पैसा लिया
रिसर्च स्कॉलर के लिए जारी की गई राशि में बड़े स्तर पर मनमानी की गई
शिक्षकों के अनुसार यह सिर्फ “अनियमितता” नहीं बल्कि फर्जीवाड़ा और फंड डायवर्ज़न है।

सवाल उल्टा, नोटिस सीधा: व्हिसलब्लोअर बने आरोपी
विश्वविद्यालय प्रशासन ने रिकार्ड खंगालने के बाद दावा किया—
“कुलपति या किसी अधिकारी ने मानदेय नहीं लिया।”
“शिकायत झूठी है और विश्वविद्यालय की छवि धूमिल करती है।”
और इसके बाद तीनों शिक्षकों को नोटिस भेजकर कहा गया—
“अगर आरोप है तो साक्ष्य दो। नहीं तो कार्रवाई होगी।”
यानी जिसे भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करना चाहिए था, वह अब खुद पर्दाफाश की जद में है।
तीन शिक्षक—जिन्होंने आवाज उठाई
डॉ. अरशद जाफरी, ओरिएंटल पर्शियन विभाग
डॉ. मेनेोशा बैनर्जी, जूलॉजी विभाग
डॉ. C.R. गौतम, फिजिक्स विभाग
तीनों LUTA (टीचर्स एसोसिएशन) के उपाध्यक्ष भी हैं, और तीनों ने मिलकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को शिकायत भेजी थी।
डॉ. जाफरी का सीधा बयान:
“हमने जांच की मांग की है, और वह भी मुख्यमंत्री से।
विश्वविद्यालय को शिकायत नहीं दी क्योंकि जिन पर सवाल हैं, वे ही जांच कैसे करेंगे?”
यह बयान अपने आप में बड़े प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
भ्रष्टाचार की तस्वीर:
निधियों का गलत उपयोग
मानदेय के नाम पर लाभ लेने का आरोप
पारदर्शिता की कमी
जांच की बजाय शिकायतकर्ताओं पर कार्रवाई
‘छवि बचाओ’ नीति, ‘सत्य उजागर करो’ नहीं
यह मामला सिर्फ एक समारोह के मानदेय तक सीमित नहीं है।
यह शैक्षणिक संस्थानों में बढ़ते दबाव, प्रशासनिक ढील, और जवाबदेही के अभाव की तरफ सीधा संकेत है।
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