एकल प्रस्तुति के जरिये अवसाद की समस्या को सामने रखा नाटक ऊपर वाला कमरा ने

लखनऊ। क्या नाटक की विधा केवल मनोरंजन का माध्यम है या इस विधा के माध्यम से सामाजिक समस्याओं को भी ख़ूबसूरती से उठाया जा सकता है। क्या मानसिक अवसाद जैसी गंभीर समस्या को एक घंटे से ज्यादा के एकालाप के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है कि दर्शक पिन ड्रॉप साइलेंस की स्थिति में बैठा रहे और अभिनेता द्वारा सृजित तनाव को अपने जीवन और आस पास मौजूद समाज में विद्यमान तनाव से जोड़कर महसूस कर सके लखनऊ के गोमती नगर स्थित संत गाडगे प्रेक्षागृह में अनूप गुप्ता की प्रस्तुति ऊपर वाला कमरा में इन्हीं प्रश्नों के सकारात्मक उत्तर मिले । Repertwahr एवं संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश के संयुक्त तत्वाधान में सम्पन्न इस प्रस्तुति के लेखक,अभिनेता और निर्देशक अनूप गुप्ता हैं। नाटक भारतीय मध्यवर्ग के सामने वर्तमान समय में उभरती चुनौतियों के इर्द गिर्द बुना गया है। बिना किसी तामझाम के, बहुत मामूली सेट और बेहद यथार्थवादी शैली के तंतुओं से निर्मित नाटक एक पिता पुत्र के रिश्तों पर आधारित है। नाटक का मुख्य और एकल पात्र एक व्यवसायी पिता है जिसका एक ही बेटा है।

पिता का व्यवसाय अच्छा चल रहा था, बेटा हाथ बटाने लगा था लेकिन कॉलेज की पढ़ाई के दौरान बेटे की मित्रता अपनी एक सहपाठिनी से हो जाती है। पिता बताता है कि कॉलेज की पढ़ाई के दौरान उनका बेटा और वह लड़की साथ साथ घूमते हैं, देर रात को घर लौटते हैं। कॉलेज की पढ़ाई के बाद उच्चतर शिक्षा हेतु लड़की विदेश चली जाती है। विदेश प्रवास के दौरान पहले लड़के की लड़के से फोन पर घंटों बातचीत होती है। धीरे धीरे बातचीत बहुत कम हो जाती है। लड़की यह तर्क देकर बातचीत सीमित कर देती है कि ज़्यादा बातचीत से उसकी पढ़ाई पर फर्क पड़ रहा है। और एक दिन तो उसका मोबाइल पर संदेश आता है की वह और व्यवसाई का बेटा केवल मित्र हैं। अपनी संभावित जीवन संगिनी के इस असंगत व्यवहार से क्षुब्ध होकर पुत्र, पिता की गाड़ी बेचकर उस पैसे से विदेश अपनी मित्राणी से मिलने चला जाता है। वहाँ से लौट कर वह मानसिक रूप से अवसादग्रस्त हो जाता है। अपने बेटे की यह अवस्था देखकर लड़के के माँ बाप जब लड़की के माँ बाप से मिलने जाते हैं तो उन्हें पता चलता है कि लड़की ने किसी और लड़के से शादी कर ली है।

नाटक में वाचक जिस तरह से अपने बेटे के मानसिक रूप से अवसादग्रस्त हो जाने की कथा सुनाता है ,उसमें कोई बनावट नहीं है, कोई उत्तेजना नहीं है । आराम से अपने जीवन की एक परत खोलते जाने का उपक्रम है। कैसे बेटा, बचपन में पड़ोसी व्यवसायी गुप्ता जी की नयी मारुति 800 देखकर ज़िद पकड़ लेता है कि उसके माँ बाप भी एक कार खऱीदें। कैसे दुकान में आया हुआ एक नया नौकर अपनी पत्नी की दीपावली पूजा के चक्कर में दुकान से एक साड़ी चुरा लेता है और बाद में फफक- फफक कर रोते हुए अपनी गलती बताता है और इस सबके बावजूद उसको ससम्मान दुकान में रखा जाता है और फिर वह कभी चोरी नहीं करता। नाटक में एकालाप के माध्यम से छोटे दुकानदारों के जीवन के विभिन्न पक्ष उद्घाटित होते हुए चलते हैं । अनूप गुप्ता एक सफेद कुर्ता-पायजामा और उस पर बिना बांहों का स्वेटर पहने हुए सवा घंटे लगातार अपनी कथा कहते हैं और इस कथा कहने के दौरान ऐसा वातावरण सृजित करते हैं कि लगता है कि आप किसी छोटे मोटे व्यापारी से उनके घर की कहानी सुन रहे हैं। कथा में कोई बहुत ज़्यादा नाटकीय मोड़ नहीं,बल्कि एक पिता की स्थाई उपस्थिति है जो अपने मानसिक रूप से अवसादग्रस्त बेटे के शीघ्र स्वस्थ हो जाने की कामना कर रहा है।

बेटे का इलाज करते- करते नौ वर्ष बीत गये। डॉक्टर फिर भी दिलासा दे रहा है कि बेटा जल्द ठीक हो जाएगा और पिता का व्यापार संभाल लेगा। एक कहानी जो वर्तमान समय में बड़े पैमाने पर ढेर सारे मध्यमवर्गीय परिवारों को प्रभावित कर रही जहाँ एकल परिवार हैं। घर में एक या दो बच्चे हैं । एक पारंपरिक बिजनेसमैन के घर का दृश्य जहां मंच पर केवल एक फोल्डिंग खाट पड़ी है, सामने एक छोटी मेज़ है। बग़ल में एक बड़ा सा लोहे का बक्सा है और उस बक्से के ऊपर एक छोटा सा पुराना टीन का बक्सा है जिसके बगल में एक ट्रांजिस्टर और एक मेडल रखा है। फोल्डिंग चारपाई पर गद्दा और उस पर एक सिलवटें पड़ी हुई चादर है। पांवों में कपड़े के जूते पहने परेशान पिता अपने पुत्र की कथा बता रहा है और इस से जो तनाव सृजित हो रहा है वह कुछ कुछ वैसा है जैसा मृणाल सेन की एक दिन प्रतिदिन फिल्म देखकर होता था। इस तनाव को प्रेक्षागृह में बैठे बहुत से दर्शक नहीं झेल पाते और वह थोड़ी देर में हॉल से बाहर जाते दिखते हैं । लेकिन गंभीर नाटकों के प्रेमी दम साधे अंत तक नाटक के एक एक संवादों से बंधे रहते हैं।

नाटक के अंत तक पहुंचते पहुंचते पिता स्वयं अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। यह स्थिति तब होती है जब वह अपने पुत्र को एक अजीबोगरीब स्थिति में पाता है। दरअसल बेटे की दोस्ती एक कुत्ते से है। एक दिन उस कुत्ते की मौत सड़क दुर्घटना हो जाती है। पुत्र उस कुत्ते की लाश एक चादर में लेकर आता है और उस लाश को पार्क में गड्ढे में दफना देता है । लेकिन चादर लेकर घर आ जाता है और उस चादर को अपनी दिवंगत माँ के कमरे में बिछा देता है। पिता चादर पर कुत्ते के खून के धब्बे, उसके बाल, कीचड़ आदि देखकर गहरे अवसाद में चला जाता है। वह नींद की गोलियों का सहारा लेता है और नींद से उठने के बाद घर का सारा सामान कबाड़ी को बुलाकर दे देता है। कबाड़ी के सामान के बीच अपने बेटे को बैठा देख, वो चीख- चीखकर बेटे को पुकारता है और यहीं पर नाटक समाप्त हो जाता है।

ठीक एक घंटे और पंद्रह मिनट के इस नाटक में ना तो कोई बैकग्राउंड म्यूज़िक था न प्रकाश परिकल्पना के आयाम (यद्यपि नाटक का पहला सीन खूबसूरत प्रकाश परिकल्पना का नमूना था)। एक चारपाई के इर्दगिर्द एकालाप करते हुए एक अधेड़ की निहायत यथार्थवादी शैली में संवाद अदायगी। और यही सारी चीजें नाटकों को लेकर प्रचलित विचारधारा की सिरे से धज्जियां उड़ाती हैं, जहां नाटक के लिए भव्य सैट, आकर्षक परिधान,चुटीले डायलॉग, पाश्र्व संगीत, प्रकाश परिकल्पना को ही सब कुछ मान लिया गया है।यह नाटक उस विचारधारा का भी प्रतिकार था जहाँ यह मान लिया गया कि इंटरनेट और फेसबुक के जमाने में अब दर्शक किसी सामाजिक समस्या पर आधारित गंभीर नाटक को देखने के लिए तैयार नहीं है। स्थापित फ्रेमवर्क को सिरे से खारिज करते इस नाटक के प्रदर्शन के लिए Repertwahr के भूपेश राय की भी भूरी भूरी प्रशंसा की जानी चाहिए जिन्होंने ऊपर वाला कमरा जैसी नाट्य प्रस्तुति के प्रदर्शन का जोखिम उठाया।

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