आईएएस डॉ. वेदपति मिश्रा की कलम से ‘सम की एक रात’
भारत के लोग रेगिस्तान के नाम पर सहारा मरूस्थल, अफ्रीका महाद्वीप या अरबी रेगिस्तान ( सऊदी अरब या UAE ) की तारीफ करते नहीं थकते..
वे वहाँ की चर्चा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्होंने अभी तक भारत का रेगिस्तान नहीं देखा है तथा भारत के रेगिस्तान का कोहिनूर – रेगिस्तान में बसे एक शहर जैसलमेर को नहीं देखा है …
दुनिया भर के मरुस्थल में कई देश एवं शहर विश्व प्रसिद्ध हैं जिसमें – माली,मोरक्को,इजिप्ट ,सूडान व सऊदी अरब व UAE भी शामिल हैं…..इजिप्ट के अलावा दुनिया भर के रेगिस्तान में किसी शहर का इतिहास तारीफ करने लायक नहीं है , वह भी यहाँ पर बने पिरामिड की वजह से…पर इन सभी शहरों में वह बात नहीं है जो जैसलमेर में है…….
UAE ( दुबई) की चर्चा वर्तमान में, पूरे विश्व मे होती हैं क्योंकि आधुनिक तकनीक से उन्होंने उस रेगिस्तान में उस दुबई शहर को बसाया है जिसकी और कोई सिर्फ कल्पना ही कर सकता है…पर वहाँ भी 200-400 साल पहले कुछ नहीं था।वह क़बिलाई भी कबीलों एवं टेंटों में दिन गुजारा करते थे…….
लेकिन अगर आप विचार करें तो
भारत में ऐसा नहीं था । भारत का थार मरुस्थल – जो जोधपुर शहर की बाहरी सीमा से शुरू होता है और पाकिस्तान तक जाता है….. इस विशाल रेगिस्तान के बीचोंबीच एक जगह है, उसका नाम है जैसलमेर । जैसलमेर के रूप में ,रेगिस्तान के बीच में एक शहर का होना ,किसी चमत्कार से कम नहीं है । यह आधुनिक शहर केवल शहर नहीं है, बल्कि यह शहर 900 वर्ष पहले स्थापित किया गया था जो रेगिस्तान में चूना पत्थर से बना है । 900 वर्ष पूर्व का प्राचीन विशालकाय किला जो खुद में एक क़स्बा है, उसे देखकर दुनिया के सभी रेगिस्तान भी शर्म से अपना सिर झुका लेंगे …… स्वर्ण – आभा वाले पत्थरों से निर्मित यह किला और उसमें शिल्पियों द्वारा की गयी अत्यंत ही बारीक और महीन नक़्क़ाशियाँ किसी दर्शक के नज़रों को आकृष्ट कर बांध लेने में सर्वथा सक्षम हैं और वह निर्निमेष अपलक नेत्रों से एकटक देखने को विवश हो जाता है ।
जिस रेगिस्तान में वर्तमान में कोई नया आर्किटेक्चर खड़ा नहीं हो पाया , उसी रेगिस्तान के बीच में आज से लगभग 1400 -1500 वर्ष पूर्व 6ठीं शताब्दी में भगवान श्री कृष्ण के वंशजों ने इस जगह को रहने के लिये चुना और धीरे-धीरे राज्य को गति देते हुए 11 वीं शताब्दी में जैसलमेर राजधानी का निर्माण कराया। महाराज जैसल भाटी द्वारा अद्भुत, अकल्पनीय विशाल सुनार किले का निर्माण किया गया तथा आम जनता में जलापूर्ति कराने हेतु मानव निर्मित गड़सीसर झील का भी निर्माण इस रेगिस्तान में कराया गया …. यह वह दौर था जब अरब देशों में लोग क़बीलाई संस्कृति में रहते थे…….
बाद में , इसी शहर में,अद्भुद शिल्पकारी तथा नक़्काशी वाले मंदिरों का निर्माण कराया गया।विश्व प्रसिद्ध हवेलियों का भी निर्माण हुआ…जिससे शहर धीरे -धीरे बढ़ता चला गया और जहां आज भी करीब सवा लाख से ज्यादा जनसंख्या निवास करती है…..
विश्वभर के रेगिस्तान में बने शहरों में भारत का जैसलमेर, अपनी एक अलग मिसाल रखता है। इस शहर को भारतीयों से ज्यादा विदेशी पर्यटक हर वर्ष देखने आते हैं और रेगिस्तान में बने इस अविश्वसनीय शहर को देखकर पागल से हो उठते हैं ।वे रेगिस्तान पर बने इस 900 वर्ष पुराने महल को देखकर आपस में खुसर-फुसर करते हैं …..और भी इच्छुक हो उठते हैं , इस महल के ऐतिहासिक रहस्य को जानने में । वह यह भी जानना चाहते हैं कि इस रेगिस्तान में इतने विशाल मंदिर कैसे बनाये गए, इन मंदिरों में इतनी बारीक नक्काशी कैसे की गयी होगी…आदि-आदि
लेकिन हम भारतीयों को इस कोहिनूर के बारे में पता ही नहीं है । हम भारतीय तो अपनी अलग धुन में रहते हैं….
जैसलमेर शहर, जहां सिर्फ रेगिस्तान है, दूर दूर तक, न कोई व्यवसाय और न ही कोई इंडस्ट्रीज…
पर उस शहर की किस्मत है कि वह पोखरण पर नाज़ कर सकता है। वह हमारे गौरवशाली इतिहास का एक महत्वपूर्ण अंग है। वहाँ के राजवंशों ने उस रेगिस्तान में विशाल किले बनवाये, ऐतिहासिक मन्दिर बनवाये, यहाँ तक कि पानी की झील भी बनवाई… वर्तमान में रेगिस्तान के इस कोहिनूर को लाखों लोग देखने आते हैं,जिसमें सबसे ज्यादा विदेशी पर्यटक होते हैं..
आप हैरान होंगे यह जानकर कि जैसलमेर का टूरिज़्म रेवेन्यू 500 करोड़ रुपये ,प्रति वर्ष का है..मतलब बिना कुछ किये जैसलमेर में क़िले के इर्द-गिर्द रह रहे करीब 1 – 1-1/2 लाख लोगों का जीवन – यापन आराम से होता है ।यहीं टूरिस्ट आकर , जैसलमेर के पास – “ सम ” नामक स्थान पर रेगिस्तान (डिजर्ट) में जाकर कैमल सफारी, जीप सफ़ारी तथा यहाँ
की प्राचीन सांस्कृतिक विरासतों – कालबेलिया लोकनृत्य,पारम्परिक लोकगीतों ,लोकवाद्यों – खरताल, अलगोजा, रीतिरिवाजों को देखता है ।खानपान में – केर-सांगरी , पंचकूटा , बाजरे की रोटी ( सोगरा ) , गड़रा के लड्डू आदि का स्वाद लेता है तथा रेगिस्तान में टेंटों के डेरों में रात्रि प्रवास का आनन्द भी लेता हैं , जिससे जैसलमेर के आस पास के गांव वालों को भी रोजगार प्राप्त होता है । कई वर्ष पूर्व, मुझे भी इस रेगिस्तान में घूमने का अवसर प्राप्त हुआ था। मातेश्वरी तनोट माता का दर्शन लाभ कर , जब मैं जैसलमेर की ओर प्रत्यावर्तित हो रहा था , उस समय सायंकाल हो रहा था और मुझे ” सम “ नामक स्थान पर , रेगिस्तान में टेंट / तंबुओं से बने होटल एवं रेस्टोरेंट में रुकने का , मेरे एक आइ.ए.एस. मित्र डॉ. पंकज जैन ( मध्य प्रदेश, काडर ) ने परामर्श दिया था । मैं ” अंतरा “ नामक होटल में रुका और वहां रेगिस्तान में कुर्सी मंगाकर बैठ गया।
भगवान मरीचि – मालिनि (सूर्य) प्रायः अस्ताचल के अंतिम शिखर की ओर अग्रसरित थे और मेरी दृष्टि एकटक उस दृश्य को अपने आँखों में क़ैद कर रही थी ।उस विरान स्थल में, वह बहुत ही रोमांचक और अद्भुत दृश्य था।
सूर्य के अस्ताचल की ओर प्रायः पूर्ण गमन की स्थिति को भांप कर, पक्षियों का एक झुंड निरभ्र आकाश में , चहचहाते हुए अपने-अपने नीड़ों की ओर गमन कर रहा था।
मैं इन दृश्यों को देखता और आनन्दानुभव करता हुआ पूर्ण भावमग्न था और खेचरी मुद्रा में अवस्थित सा था । इसी निरभ्र गगन के तले बैठा हुआ, मैं कभी-कभी भीनी- भीनी सी सुवासित और ठंडी – ठंडी सी सिहरन को भी महसूस करता हुआ , प्रकृति की गोद बैठा हुआ इसके सौंदर्य को निहार रहा था और जगन्नियन्ता को धन्यवाद ज्ञापित कर रहा था । अहा !सम, जैसलमेर, राजस्थान का वह विहंगम दृश्य कितना रोमांचक, अद्भुत और मनोमुग्धकारी था !!
उसी समय अंतरा होटल के मालिक ने आकर मुझसे सांस्कृतिक कार्यक्रम का में चलने का आग्रह किया । मैं उनके अनुरोध पर जब उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल हुआ तो
अंतरा होटल के मालिक के अनुरोध पर मैं सांस्कृतिक कार्यक्रम में पहुँचा ।नीले वितान के तले गायन, वादन एवं नृत्य की अद्भुत लहंरिया झंकृत हो रही थी। लय का आरोहावरोह ,नाद, ताल का अद्भुत संगम एवं नृत्यों की भावपूर्ण विविधवर्णी भंगिमाएं श्रोताओं एवं दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर रही थी ।
सच कहूं तो अत्यंत ही ललिता-ललाम -भूत, सौंदर्य- संदोह- संवलित, सांस्कृतिक -समारोह में रक्ताभवर्णी-कोमल- कपोल- कांताओं की भावपूर्ण भंगिमायें उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में अन्त तक बैठे रहने को विवश कर रही थी।मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि आत्यंतिक उच्च कोटि के कलाकारों के आजीविका के साधन भी इस प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम ही होंगे ।
यद्यपि यह
कलाकार देश-विदेश में जाकर अपनी कला का लोहा मनवा लेने में सक्षम थे किंतु कदाचित इस प्रकार के नयनाभिराम दृश्य ही उनके बहिर्गमन के बाधक तत्व होंगे ।
● जैसलमेर में हर साल लगभग 5 लाख लोग घूमने आते हैं जो यहाँ रहने ,खाने ,आने-जाने ,घूमने- टहलने पर तथा यहाँ के बने सामानों को खरीदने पर लगभग 500 करोड़ का रेवेन्यू न्देकर जाते हैं…..
कुल मिलाकर, यह समझिये कि वर्तमान में , इस शहर व इस शहर के आस- पास के लोगों का जीवन- यापन सिर्फ टूरिज़्म पर काफी हद तक निर्भर करता है ।
अगर हम लोग विदेशों की विकृत संस्कृति एवं आधुनिक आर्किटेक्चर को नकार कर, अपनी सैकड़ों व हज़ारों वर्षों पुरानी संस्कृति, शिल्पकला से जुड़ें तो उससे उन्हें सही पहचान भी मिलेगी एवं साथ ही साथ इस टूरिज्म से अपने लोगों को रोजगार ,व्यवसाय में सहयोग भी होगा……
लोकल टूरिज़्म से हमको और हमारे बच्चों को अपने इतिहास,अपनी संस्कृति तथा अपनी प्राचीन परम्पराओं का ज्ञान होगा व लगाव भी बढ़ेगा..जो कि एक मजबूत राष्ट्र के लिए बहुत ही जरूरी है…
कुछ लोग कहेंगे कि जो मजा ,नज़ारा विदेशो में है, वह भारत मे कहाँ ?????
यह कथन हमारी अच्छी मानसिकता का परिचायक नहीं है । दरअसल, हमने भारत को सही देखा ही कहाँ है या देखना ही नहीं चाहते । हमने 2-4 बड़े मेट्रो शहर देख लिए तो हमें लगता है कि हमने सारा भारत देख लिया ..
भारत में देखने को इतना कुछ है और सीखने को इतना कुछ है कि बताना मुश्किल है…जिस भारत को हम देखना नहीं चाहते ,उसे देखने विदेशों से लाखों पर्यटक हर वर्ष भारत आते हैं।
भारत के टूरिज्म की खास वजह यह है कि यहाँ का 80% टूरिज्म ऐतिहासिक है। लोग दुनिया भर से हमारे इतिहास, हमारी परम्पराओं को और संस्कृति का अध्ययन करने के लिए आते हैं….पूर्व में फाह्यान ,ह्नेनसांग, ईतसिंग,वास्कोडिगामा, अलबरूनी और बदायूंनी आदि इसके प्रमाण हैं ।
● हम मानते हैं कि भारत में टूरिज्म जितना फ़ोकस किया जाना चाहिए था, उसमें हम कमजोर रहे हैं । पर अगर हम तेजी से देशी पर्यटन की ओर रुख करें तो हमारे यहाँ भी व्यवस्था दुरुस्त होगी….. अगर हम अपने – अपने दरवाज़े को खटखटायें तो अभी अपार सम्भावनाओं से साक्षात्कार कर सकते हैं..
टूरिज्म सबसे ज्यादा रोजगार देता है, वह भी बिना किसी बहुत बड़ी लागत के…