कविता : दफ्तरों के कर्मचारियों पर एक छोटी सी कविता
अल्पज्ञानी अंधेरा की कोशिश है राजनीति से उजाले को लगा दूँ ग्रहण
पर उसे क्या मालूम, उसका तो नाम ही है उजाला
चमक दमक है जिसकी पहचान
संग रहे जो उसकी भी बन जाये जान
पर अंधेरा अल्पज्ञानी जो ठहरा
उसको है बस यही गुमान, उसके अंदर है सर्वग्य ज्ञान
उजाले की है क्या विसात
जब तक वह है तभी तक है उजाले की ओकात
वह न होता तो उजाला न होता, जब तक वह है तब तक है उजाला
कुतर्क से ही सही, राजनीति से ही सही, पर ढंक दूंगा उजाले को, लगा दूंगा आग
मैं जलूं तो जलूं, पर वह भी जले, हाथ मे लगे कालिख तो क्या, वह भी जले
जलने से जो लौ निकली, उससे जगत में फिर हुआ उजाला
और अंधेरे की तर्क, कुतर्क व गंदी राजनीति आई न काम
उजाले ने फिर बनाया अपना नया मुकाम
हर किसी ने उजाले में देखा अपना भविष्य
और अल्पज्ञानी अंधेरे के लिए खुद अंधेरा ही बन गया ग्रहण।
लेखक : अनुपम सिंह